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श्रमण सूक्त
३२६ जाणिय पत्तेय पुण्णपाव
अत्ताण न समुक्कसे जे स भिक्खू । (द १० १८ ग, घ )
प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्-पृथक् होते हैं - ऐसा जानकर जो अपनी बडाई नहीं करता - वह भिक्षु है ।
३२७
मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता
धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ।
(द १० १६ ग, घ )
जो सर्व मदो का वर्जन करता हुआ धर्म-ध्यान मे रत रहता है-वह भिक्षु है ।
३२८
निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिग ।
न यावि हस्सकुहए जे स भिक्खू । (द १० २० ग, घ )
जो प्रव्रजित होकर कुशील-लिग का वर्जन करता है, जो दूसरो को हसाने के लिए कुतूहलपूर्ण चेष्टा नहीं करता - वह भिक्षु है ।
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