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श्रमण सूक्त
३२६ त देहवास असुइ असासय सया च निच्च हियद्वियप्पा | छिदित्तु जाईमरणस्स बघण उवेइ भिक्खू अपुणरागम गइ || (द १० २१)
अपनी आत्मा को सदा शाश्वतहित मे सुस्थित रखने वाला भिक्षु इस अशुचि और अशाश्वत देहवास को सदा के लिए त्याग देता है और वह जन्म-मरण के बन्धन को छेदकर अपुनरागम - गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है ।
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लहुस्सगा इत्तरिया गिहीण कामभोगा ।
(द चू १, सू १ २ )
गृहस्थो के काम-भोग, स्वल्प-सार-सहित (तुच्छ) और अल्पकालिक हैं ।
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