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श्रमण सूक्त
श्रमण सूक्त
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૩રર कयविक्कयसन्निहिओ विरए सबसगावगए य जे स भिक्खू। .
(द १० १६ ग, घ) जो क्रय-विक्रय और सन्निधि से विरत है, जो सब प्रकार के सगो से रहित है-वह भिक्षु है।
३२३ उछ चरे जीविय नाभिकखे।
(द १० १७ ख) साधु उञ्छचारी होता है। वह असंयम जीवन की आकाक्षा नहीं करता।
३२४ अलोल भिक्खू न रसेसु गिध्दे ।
(द १० १७ क) भिक्षु अलोलुप होता है। वह रसों मे गृद्ध नहीं होता।
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३२५
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इड्डि च सक्कारण पूयण च चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ।
(द. १० : १७ ग, घ) जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा की स्पृहा का त्याग करता ॥ है, जो स्थिताम्मा है और जो माया नहीं करता-वह भिक्षु है। ।।
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