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श्रमण सूक्त
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२५४ न य उरु समासेज्जा चिडेज्जा गुरुणतिए।
(द ८ ४५ ग, घ) गुरु के समीप उनके ऊरु से अपना ऊरु सटाकर न बैठे।
२५५
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वइविक्खलिय नच्चा न त उवहसे मुणी।
(द ८ ४६ ग, घ) किसी को बोलने मे स्खलित जानकर भी मुनि उसका उपहास न करे।
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अन्नट्ट पगड लयण भएज्ज सयणासण।
(द ८ ५१ क, ख) मुनि अन्यार्थ-प्रकृत (दूसरो के लिए बने हुए) गृह, शयन और आसन का सेवन करे।
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