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श्रमण सूक्त
२५१ अल्लीणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी ।
शिष्य आलीन और गुप्त (मन और काया से सयत )
होकर गुरु के समीप बेठे ।
२५२ त परिगिज्झ वायाए
कम्मुणा उववाय ।
(द ४४ ग, घ )
(द ८ ३३ ग, घ )
गुरु के वचन को वाणी से ग्रहण कर कर्म से उसका आचरण करे ।
२५३
न पक्खओ न पुरओ नेव किच्चाण पिट्ठओ ।
(द ८ ४५ क, ख )
आचार्यो के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न बैठे ।
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