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श्रमण सूक्त
२४७
पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा लाभालाभ न निदिसे।
(द ८ २२ ग, घ) पूछने पर या बिना पूछे आहार मिला है या नहीं मिला यह न कहे।
२४८ चरे उछ अयपिरो
(द ८ २३ ख) वाचालता से रहित होकर उञ्छ' ग्रहण करे।
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२४६
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अफासुय न भुजेज्जा कीयमुद्देसियाहड।
(द ८ २३ ग, घ) अप्रासुक, क्रीत, औद्देशिक और आहृत आहार आ जाय तो न खाये।
२५० मुहाजीवी असबद्ध हवेज्ज जगनिस्सिए।
(द ८ २४ ग, घ) वह मुधाजीवी, असबद्ध और लोकआश्रित हो। १ अनेक घरो से थोडा-थोडा आहार लेना।
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४४८
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