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श्रमण सूक्त
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२७१ एवायरिय पि हु हीलयतो। नियच्छई जाइपह खु मदे।
(द ६ (७) ४ ग, घ) इसी प्रकार (अल्पवयस्क) आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मंद शिष्य जातिपथ:--संसार मे परिभ्रमण करता है।
२७२ आसीविसो यावि पर सुरुट्ठो किं जीवनासाओ पर नु कुज्जा।
(द६ (१) ५ क, ख) आशीविप सर्प अत्यन्त रुष्ट हो जाने पर भी जीवन का अंत करने से अधिक क्या कर सकता है ?
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२७३
आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहिआसायण नत्थि मोक्खो।
(द ६ (१) ५ ग घ) किन्तु आचार्यपाद अप्रसन्न होने पर अयोधि करते हैं (चोधि-लाम का नाश होता है) अत गुरु की आशातना से मोक्ष नहीं मिलता।
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|| १ ससार अथवा जीव योनिय जातिगग ससार।
२ जिसकी दाट मे विष हो वह सर्प।