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श्रमण सूक्त
२२६ तिविहेण करणजोएण सजए सुसमाहिए ||
(८ ४ ग, घ )
सुसमाहित सयमी तीन करण और तीन योग से पृथ्वी जीवों के प्रति अहिंसक रहे।
२२७
सुद्धपुढवीए न निसिए ससरक्खम्मिय आसणे ।
(द ८ ५क. ख)
मुनि शुद्ध पृथ्वी- सचित्त अथवा मुंड पृथ्वी और सचित्त रज से ससृष्ट आसन पर न बैठे।
२२८
पमज्जित्तु निसीएज्जा
जाइत्ता जस्स ओग्गह ||
४४१
(द ८
५. ग, घ)
अचित्त भूमि पर प्रमार्जन कर और वह जिसकी हो
उसकी अनुमति ले बैठे ।