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श्रमण सूक्त
२२० कए वा विक्कए वि वा। अणवज्ज वियागरे।।
(द ७ ४६ ख घ) क्रय या विक्रय के प्रसग मे मुनि अनवद्य वचन बोले ।
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२२१ कया णु होज्ज एयाणि, मा वा होउ त्ति नो वए।
(द ७ ५१ ग घ) वायु वर्षा गर्मी, सर्दी, क्षेम, सुभिक्ष और शिव-ये कब होगे अथवा ये न हो तो अच्छा रहे-इस प्रकार न कहे।
२२२ भासाए दोसे य गुणे य जाणिया। तीसे य दुढे परिवज्जए सया।।
(द ७ ५६ क ख) भाषा के दोष और गुणो को जानकर दोषपूर्ण भाषा का जो मुनि सदा वर्जन करता है वह प्रबुद्ध है।
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