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श्रमण सूक्त
૧ર मेहुणा उवसतस्स कि विभूसाए कारिय।
(द६ ६४ ग, घ) मैथुन से निवृत्त मुनि को विभूषा से क्या प्रयोजन ?
१६३ ससारसायरे घोरे जेण पडइ दुरुत्तरे।
(द ६ ६५ ग, घ) विभूषा से साधु दुस्तर ससार-सागर में गिरता है।
૧૬૪ विभूसावत्तिय चेय बुद्धा मन्नति तारिस
(द६ ६६ क, ख) विभूषा मे प्रवृत्त मन को ज्ञानी विभूषा करने के तुल्य ही चिकने कर्म के बन्धन का हेतु मानते हैं।
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१६५ सावज्जबहुल चेय नेय ताईहि सेविय।
(द६ ६६ ग, घ) यह प्रचुर पापयुक्त है। यह छहकाय के त्राता मुनियो ॥ द्वारा आसेवित नहीं है।
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