________________
श्रमण सूक्त
१६२ वणस्सइ विहिसतो हिसई उ तयस्सिए |
(द ६ ४१ क ख )
वनस्पति की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित ( अनेक त्रस और स्थावर) जीवो की हिंसा करता है। १६३
वणस्सइसमारभ
जावज्जीवाए वज्जए ।
(द ६ ४२ ग, घ )
निर्ग्रन्थ जीवन - पर्यन्त वनस्पति के समारभ का वर्जन करे। १६४ तसकाय न हिंसति
मणसा वयसा कायसा ।
(द ६ ४३ क, ख )
निर्ग्रन्थ मन, वचन, काया से सकाय की हिंसा नहीं करते ।
१६५ तिविहेण करणजोएण सजया सुसमाहिया ।
(द ६ ४३ ग, घ )
सुसमाहित सयमी त्रिविध त्रिविध करणयोग से - मन, वचन, काया एवं कृत, कारित व अनुमति से त्रसकाय की हिसा के त्यागी होते हैं ।
४२२