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श्रमण सूक्त
१५६
वाउकायसमारभ
जावज्जीवाए वज्जए ।
अत निर्ग्रन्थ जीवन पर्यन्त वायुकाय के समारभ का
वर्जन करते हैं ।
१६०
वर्णस्सइ न हिसति
मणसा वयसा कायसा ।
(द ६ ३६ ग, घ )
(द ६ ४० क, ख )
निर्ग्रन्थ मन, वचन, काया से वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते ।
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१६१
तिविहेण करणजोएण सजया सुसमाहिया
-४२१
(द ६४० ग, घ )
सुसमाहित सयमी त्रिविध त्रिविध करणयोग से - मन, वचन, काया एव कृत, कारित, अनुमोदन से वनस्पतिकाय की हिसा के त्यागी होते हैं ।