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ANOL श्रमण सूक्त
१४४ पुढविकायसमारभ जावज्जीवाए वज्जए।
(द ६ २८ ग, घ) मुनि जीवन भर के लिए पृथ्वीकाय के समारम्भ का वर्जन करे।
१४५ आउकाय न हिसति मणसा वयसा कायसा।
(द ६ २६ क, ख) निर्ग्रन्थ मन, वचन, काया से अप्काय की हिंसा नहीं करते।
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१४६ तिविहेण करणजोएण सजया सुसमाहिया।
(द६ २६ ग, घ) सुसमाहित सयमी त्रिविध त्रिविध करणयोग से मन, वचन, काय एव कृत, कारित. अनुमति रूप से अपकाय की हिसा के त्यागी होते हैं।
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