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श्रमण सूक्त
१४७ आउकाय विहिसतो हिसई उ तयस्सिए।
(द ६ ३० क, ख) अपकाय की हिसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित (अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर) प्राणियो की हिंसा करता
१४८ आउकायसमारभ जावज्जीवाए वज्जए।
(द६ : ३१ ग, घ) अतः मुनि जीवन-पर्यंत अप्काय के समारम्भ का वर्जन करे।
१४६ जायतेय न इच्छति पावग जलइत्तए।
(द ६ ३२ क, ख) मुनि जाततेज-अग्नि जलाने की इच्छा नहीं करते।
१५० तिक्खमन्नयर सत्य सव्वओ वि दुरासय।
(द६ ३२ ग, घ) अग्नि दूसरे शस्त्रो से अति तीक्ष्ण शस्त्र और सब ओर
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से दुराश्रय है।
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