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श्रमण सूक्त
१४१
सव्वाहार न भुजति निग्गथा राइभोयण |
(द ६
२५ ग, घ )
निर्ग्रन्थ रात्रि में किसी भी प्रकार का आहार नहीं करते।
१४२
पुढविकाय न हिसति
मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण सुसमाहिया ।
सजया
(द ६ २६)
सुसमाहित सयमी त्रिविध त्रिविध करणयोग से मन, वचन, काय एव कृत, कारित, अनुमति रूप से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते ।
१४३
दोस दुग्गइवड्ढण |
(द ६ २८ ख )
पृथ्वीकाय आदि की हिंसा दुर्गतिवर्धक दोष है।
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