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श्रमण सूक्त
११६ आयरिए आराहेइ समणे यावि तारिसो।
(द ५ (२) ४५ क, ख) वैसा गुणी साधु आचार्य की आराधना करता है और श्रमणो की भी।
१२० गिहत्था वि ण पूयति जेण जाणति तारिस।
(द ५ (२) ४५ ग, घ) गृहस्थ भी उसे शुद्ध साधु मानते हैं, इसलिए उसकी पूजा करते हैं।
१२१ नरय तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा।
(द ५ (२) ४८ ग, घ) तपादि का चोर नरक या तिर्यंचयोनि को पाता है जहाँ बोधि दुर्लभ होती है।
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