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श्रमण सूक्त
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१३२ तम्हा मेहुणससग्गि निग्गथा वज्जयति ण।
(द ६ १६ ग, घ)
(अब्रह्मचर्य महान् दोषो की राशि है) अत निग्रंथ मैथुन के ससर्ग का वर्जन करते हैं।
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१३३ न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्तवओरया।
(द ६ १७ ग, घ)
जो ज्ञात-पुत्र के वचन मे रत हैं, वे किसी भी वस्तु का सग्रह करने की इच्छा नहीं करते।
१३४ त पि सजमलज्जट्ठा धारति परिहरति य।
(द६ १६ ग, घ)
मुनि सयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही उपाधि रखते हैं और उनका उपयोग करते हैं।
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