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श्रमण सूक्त
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गामाणुगाम रीयत अणगारं अकिचणं ।
अरई अणुष्पविसे
त तितिक्खे परीसहं । ।
अरइपिओ किच्चा
विरए आयरविक्खए ।
धम्मारामे निरारभे
उवसते मुणी चरे ||
(उत्त २ १४, १५)
एक गाव से दूसरे गाव मे विहार करते हुए अकिंचन मुनि के चित्त मे अरति उत्पन्न हो जाय तो उस परीषह को वह सहन करे ।
हिंसा आदि से विरत रहने वाला, आत्मा की रक्षा करने वाला, धर्म मे रमण करने वाला, असत्-प्रवृत्ति से दूर रहने वाला, उपशान्त मुनि अरति को दूर कर विहरण करे ।
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