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श्रमण सूक्त
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अत्थतम्मिय सुरम्मि आहारेइ अभिक्खण ।
चोइओ पडिचोएइ
पावसमणि त्ति वुच्चई । सय गेह परिचज्ज
परगेहसि वावडे ।
निमित्तेण य ववहरई
पावसमणि त्ति वुच्चई | सन्नाइपिड जेमेइ
नेच्छई सामुदायि ।
गिहिनिसेज्ज च वाहेइ
पावसमणि त्ति वुच्चई |
(उत्त १७ १६, १८, १६)
जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक चार-चार खाता रहता है। ऐसा नहीं करना चाहिए- इस प्रकार सीख देने वाले को कहता है कि तुम उपदेश देने में कुशल हो, करने में नहींवह पाप श्रमण कहलाता है।
जो अपना घर छोडकर ( प्रव्रजित होकर) दूसरो के घर मे व्यापृत होता है, उनका कार्य करता है, जो शुभाशुभ बताकर धन का अर्जन करता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है।
जो अपने ज्ञाति-जनो के घर का भोजन करता है, किन्तु सामुदायिक भिक्षा करना नहीं चाहता, जो गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप- श्रमण कहलाता है।
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