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श्रमण सूक्त
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उद्देसिय कीयगड नियाग
न मुचई किंचि अणेसणिज्ज। अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ कटु पाव ।।
(उत्त २० ४७)
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जो ओदेशिक, क्रीतकृत, नित्याग्र और कुछ भी अनेषणीय को नहीं छोडता, वह अग्नि की तरह सर्वभक्षी होकर, पापकर्म का अर्जन करता है और यहा से भरकर दुर्गति मे जाता
है।
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mummy
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