________________
श्रमण सूक्त
३४०
गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि सतो
जलेण वा पोक्खरिणीपलास ।। ( उत्त. ३२ - ६० )
गध से विरक्त मनुष्य शोकमुक्त बन जाता है । जैसे कमलिनी का पत्र जल मे लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह ससार मे रहकर अनेक दुखो की परपरा से लिप्त नहीं होता ।
३४२