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श्रमण सूक्त
१
विहगमा व पुप्फेसु दाणभत्तेसणे रया ।
श्रमण प्रासुक दान भक्त की एषणा में रत होते हैं, जैसे । भ्रमर पुष्पों के रस में ।
(द. १ - ३ ग. घ)
२
वय च वित्तिं लब्मामो
न य कोइ उवहम्मई ।
३
यति
अहागडेसु पुप्फेसु भमरा जहा ।
हम इस तरह से वृत्ति - मिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो।
(द १४ क, ख )
३७१
( द १ ४ ग, घ )
श्रमण यथाकृत- गृहस्थो के यहाँ सहज रूप से बना आहार लेते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पो से रस ।