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श्रमण सूक्त
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विणियट्टन्ति भोगेसु, जहा से पुरिसोत्तमो।
(द २ ११ ग, घ) प्रविचक्षण मनुष्य भोगो से वैसे ही दूर हो जाता है, जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुए।
१२ अकुसेण जहा नागो, धम्मे सपडिवाइओ।
(द २ १० ग, घ) सुभाषित वचनों को सुनकर स्थनेमि धर्म मे वैसे ही स्थिर हो गए जैसे अकुश से नाग-हाथी होता है।
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पचनिग्गहणा धीरा निग्गथा उज्जुदसिणो।
(द ३ ११ ग, घ) निर्ग्रन्थ पाचो इन्द्रियो का निग्रह करने वाले, धीर और ऋजुदर्शी होते हैं।
१४ आयावयति गिम्हेसु।
(द ३ १२ क) निर्ग्रन्थ ग्रीष्मकाल मे सूर्य की आतापना लेते हैं। .
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