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श्रमण सूक्त
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सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्वमति महेसिणो।
(द ३ १३ ग, घ) श्रमण महर्षि सर्व दुखो के प्रहाण-नाश के लिए पराक्रम करते हैं।
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दुक्कराइ करेत्ताण दुस्सहाइ सहेत्तु य।
(द ३ १४ क, ख)
निर्ग्रन्थ दुष्कर को करते हुए ओर दुसह को सहते हुए चर्या करते हैं।
२१ तया गइ बहुविह सव्वजीवाण जाणई।
(द ४ १४ ग, घ)
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जीवो और अजीवो को जान लेने पर मनुष्य सब जीवो की बहुविध गतियो को भी जान लेता है।
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