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श्रर
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महुकारसमा बुद्धा जे भवति अणिस्सिया।
(द १ ५ क, ख)
प्रबुद्ध पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित होते हैं, वे किसी एक पर आश्रित नहीं होते।
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नाणापिडरया दता तेण वुच्चति साहुणो।
(द १ ५ ग, घ)
जो नाना पिण्ड-सामुदानिक भिक्षा मै रत होते हैं, दान्त होते है वे अपने इन्हीं गुणो से साधु कहलाते हैं।
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न सा मह नोवि अह पि तीसे इच्वेव ताओ विणएज्ज राग।
(द २ ४ ग, घ) 'वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ'-ऐसा चिन्तन करता हुआ मुमुक्षु स्त्री के प्रति विषय-राग का विनय न करे।
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