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श्रमण सूक्त
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भावे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरपरेण ।
न लिप्पए भवमज्झे वि सतो
जलेण वा पोक्खरिणीपलास ।। (उत्त ३२६६)
भाव से विरक्त मनुष्य शोकमुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल मे लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह ससार मे रहकर अनेक दुखो की परपरा से लिप्त नहीं होता ।
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