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श्रमण सूक्त
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३४३)
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एगतरत्ते रुइरसि फासे
अतालिसे से कुणई पओस। दुक्खस्स सपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो।।
(उत्त ३२ . ७८)
जो मनोहर स्पर्श मे एकान्त अनुरक्त होता है और अमनोहर स्पर्श में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुखात्मक पीडा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमे लिप्त नहीं होता।
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