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श्रमण सूक्त
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एगतरते रुइरस रसम्मि अतालिसे मे कुणई पओस ।
दुक्खस्स सपीलमुवेइ बाले
न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।। (उत्त ३२ ६५)
जो मनोहर रस में एकान्त अनुरक्त होता है और अमनोहर रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक पीडा को प्राप्त होता है । इसलिए विरक्त मुनि उनमे लिप्त नहीं होता ।
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