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श्रमण सूक्त
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न रूवलावण्णविलासहास
न जपिय इगियपेहिय वा ।
इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता
दट्टु ववस्से समणे तवस्सी ।। ( उत्त ३२१४ )
तपस्वी श्रमण, स्त्रियो के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर आलाप, इगित और चितवन को चित्त मे रमा कर उन्हे देखने का सकल्प न करे।
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