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श्रमण सूक्त
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गतरते रुइरस सद्दे अतालिसे से कुणई पओस ।
दुक्खस्स सपीलमुवेई बाले
न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।। (उत्त ३२ ३६ )
जो मनोहर शब्द में एकान्त अनुरक्त होता है और अमनोहर शब्द में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक पीडा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता ।
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