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श्रमण सूक्त
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जे इदियाण विसया मणुण्णा न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न यामगुण्णेसु मण पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी ।। (उत्त ३२ २१)
समाधि चाहनेवाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियो के जो मनोज्ञ विषय हैं उनकी ओर भी मन न करे, राग न करे और जो अमनोज्ञ विषय हैं उनकी ओर भी मन न करे, द्वेष न करे।
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