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श्रमण सूक्त
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तीसे सो वयण सोच्चा सजयाए सुभासिय ।
अकुसेण जहा नागो धम्मे पडिवाइओ ।।
मणगुत्तो वयगुत्तो
कायगुत्तो जिइदिओ ।
सामण्ण निच्चल फासे
जावज्जीव दढव्वओ ।।
एव करेति सबुद्धा
पंडिया पवियक्खणा ।
विणियट्टति भोगेसु
जहा सो पुरिसोत्तमो ||
(उत्त २२ ४६, ४७, ४६ )
सयमिनी राजीमती के वचनो को सुनकर रथनेमि धर्म मे वैसे ही स्थिर हो गया जैसे अकुश से हाथी होता है।
वह मन, वचने और काया से गुप्त, जितेन्द्रिय तथा दृढव्रती हो गया। उसने फिर आजीवन निश्चल भाव से श्रामण्य का पालन किया। सम्बुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं - वे भोगो से वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे पुरुषोत्तम रथनेमि हुआ ।
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