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श्रमण सूक्त
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जइ सि रूवेण वेसमणो
ललिएण नलकूबरो। तहा वि ते न इच्छामि
जइ सि सक्ख पुरदरो।। अह च भोयरायस्स
त च सि अधगवण्हिणो। मा कुले गधणा होमो
सजम निहुओ चर।। जइ त काहिसि भाव
जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व हढो अट्टिअप्पा भविस्ससि।।
(उत्त २२ ४१, ४३, ४४) नियम और व्रत मे सुस्थिर राजवरकन्या राजीमती ने जाति, कुल और शील की रक्षा करते हुए रथनेमि से कहा-यदि तू रूप से वैश्रमण है, लालित्य से नलकूबर है और तो क्या, यदि तू साक्षात् इन्द्र है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती।
मैं भोजराज की पुत्री हू और तू अन्धकवृष्णि का पुत्र। हम कुल मे गन्धन सर्प की तरह न हो। तू निभृत हो-स्थिर मन हो-सयम का पालन कर।
यदि तू स्त्रियो को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव ।। करेगा तो वायु से आहत हट (जलीय वनस्पति-काई) की तरह
अस्थितात्मा हो जाएगा।
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