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श्रमण सूक्त
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जहा मिगे एग अणेगचारी अणेगवासे धुवगोयरे य ।
एव मुणी गोयरिय पविट्ठे
नो हीलए नो विय खिसएज्जा ।। (उत्त १६८३)
जिस प्रकार हरिण अकेला अनेक स्थानो से भक्त - पान लेने वाला, अनेक स्थानो मे रहने वाला और गोचर से ही जीवन-यापन करने वाला होता है, उसी प्रकार गोचर - प्रविष्ट मुनि जब भिक्षा के लिए जाता है तब किसी की अवज्ञा और निन्दा नहीं करता ।
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