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श्रमण सूक्त
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आउत्तया जस्स न अस्थि काइ
इरियाए भासाए तहसणाए। आयाणनिक्खेवदुगुछणाए
न वीरजाय अणुजाइ मग्ग।।
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चिर पि से मुडसई भवित्ता ___ अथिरब्बए तवनियमेहि भट्ठे। चिर पि अप्पाण किलेसइत्ता न पारए होइ हु सपराए।।
(उत्त २० ४०, ४१)
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ईर्या, भाषा, एषणा. आदान-निक्षेप और उच्चार-प्रसवण की परिस्थापना मे जो सावधानी नहीं वर्तता, वह उस मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता जिस पर वीर पुरुष चले हैं।
जो व्रतो मे स्थिर नहीं है, तप और नियमो से भ्रष्ट हे, वह चिरकाल से मुण्डन मे रुचि रखकर भी ओर चिरकाल तक आत्मा को कष्ट देकर भी ससार का पार नहीं पा सकता।
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