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श्रमण सूक्त
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एयारिसे पंचकुसीलसवुडे
रूवधरे मुणिपवराण हेडिमे। अयसि लोए विसमेव गरहिए न से इह नेव परत्थ लोए।।
(उत्त १७ - २०)
जो पूर्वोक्त आचरण करने वाला, पाच प्रकार के कुशील साधुओ की तरह असवृत मुनि के वेश को धारण करने वाला और मुनि-प्रवरो की उपेक्षा तुच्छ सयम वाला होता है, वह इस लोक मे विष की तरह निदित होता है। वह न इस लोक मे कुछ होता है और न परलोक मे।
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