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________________ श्रमण सूक्त २७७ अत्थतम्मिय सुरम्मि आहारेइ अभिक्खण । चोइओ पडिचोएइ पावसमणि त्ति वुच्चई । सय गेह परिचज्ज परगेहसि वावडे । निमित्तेण य ववहरई पावसमणि त्ति वुच्चई | सन्नाइपिड जेमेइ नेच्छई सामुदायि । गिहिनिसेज्ज च वाहेइ पावसमणि त्ति वुच्चई | (उत्त १७ १६, १८, १६) जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक चार-चार खाता रहता है। ऐसा नहीं करना चाहिए- इस प्रकार सीख देने वाले को कहता है कि तुम उपदेश देने में कुशल हो, करने में नहींवह पाप श्रमण कहलाता है। जो अपना घर छोडकर ( प्रव्रजित होकर) दूसरो के घर मे व्यापृत होता है, उनका कार्य करता है, जो शुभाशुभ बताकर धन का अर्जन करता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। जो अपने ज्ञाति-जनो के घर का भोजन करता है, किन्तु सामुदायिक भिक्षा करना नहीं चाहता, जो गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप- श्रमण कहलाता है। २७७
SR No.034105
Book TitleShraman Sukt
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2000
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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