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________________ श्रमण सूक्त (२७६ । विवाद च उदीरेइ अहम्मे अत्तपण्णहा। दुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई।। अथिरासणे कुक्कुईए जत्थ तत्थ निसीयई। आसणम्मि अणाउत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई।। दुद्धदहीविगईओ आहारेइ अभिक्खण। अरए य तवोकम्मे पावसमणि त्ति वुच्चई ।। (उत्त १७ १२, ७, १५) जो शात हुए विवाद को फिर से उभाडता है, जो सदाचार से शून्य होता है, जो (कुतर्क से) अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, जो कदाग्रह और कलह मे रत होता है, वह पाप-श्रमणकहलाता है। जो स्थिरासन नहीं होता, बिना प्रयोजन इधर-उधर चक्कर लगाता है, जो हाथ, पैर आदि अवयवो को हिलाता रहता है, जो जहा कहीं बैठ जाता है-इस प्रकार आसन (या बैठने) के विषय मे जो असावधान होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। जो दूध, दही आदि विकृतियो का बार-बार आहार करता है और तपस्या मे रत नहीं रहता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। - २७६
SR No.034105
Book TitleShraman Sukt
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2000
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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