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श्रमण सूक्त
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सद्धं नगर किच्चा तवसवरमग्गल ।
खति निउणपागार तिगुत्त दुप्पधसय ।।
धणु परक्कम किच्चा जीव च इरिय सया ।
धिइ च केयण किच्चा सच्चेण पलिमथए ||
तवनारायजुत्तेण
भेत्तूण कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामो
भवाओ परिमुच्चए || (उत्त ६
२०-२२ )
श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त - बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन, वचन और कायगुप्ति से सुरक्षित, दुर्जेय और सुरक्षा - निपुण परकोटा बना, पराक्रम को धनुष, ईर्यापथ को उसकी डोर और धृति को उसकी मूठ बना उसे सत्य से बाधे ।
तप-रूपी लोह-बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म-रूपी कवच को भेद डाले। इस प्रकार सग्राम का अन्त कर मुनि ससार से मुक्त हो जाता है।
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