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_ श्रमण सूक्त ।
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अहो । ते निज्जिओ कोहो
अहो । ते माणो पराजिओ। अहो । ते निरक्किया माया
अहो । ते लोभो वसीकओ।। अहो ! ते अज्जव साहु
अहो । ते साहु मद्दव। अहो । ते उत्तमा खती
अहो ! ते मुत्ति उत्तमा ।। इहं सि उत्तमो भंते !
पेच्चा होहिसि उत्तमो। लोगुत्तमुत्तम ठाणं सिद्धि गच्छसि नीरओ।।
(उत्त. ६ : ५६-५८) देवेन्द्र ने नमि राजर्षि के वैराग्य की प्रशंसा करते हुए कहा-“हे राजर्षि । आश्चर्य है तुमने कोध को जीता है । आश्चर्य है तुमने मान को पराजित किया है । आश्चर्य है तुमने माया को दूर किया है । आश्चर्य है तुमने लोभ को वश मे किया है । अहो। उत्तम है तुम्हारा आर्जव । अहो। उत्तम है तुम्हारा मार्दव । अहो । उत्तम है तुम्हारी क्षमा या सहिष्णुता। अहो ! उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता।
भगवन् । तुम इस लोक मे भी उत्तम हो और परलोक मे भी उत्तम होओगे। तुम कर्म-रज से मुक्त होकर लोक के सर्वोत्तम स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करोगे।
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