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________________ श्रमण सूक्त २४१ सद्धं नगर किच्चा तवसवरमग्गल । खति निउणपागार तिगुत्त दुप्पधसय ।। धणु परक्कम किच्चा जीव च इरिय सया । धिइ च केयण किच्चा सच्चेण पलिमथए || तवनारायजुत्तेण भेत्तूण कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चए || (उत्त ६ २०-२२ ) श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त - बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन, वचन और कायगुप्ति से सुरक्षित, दुर्जेय और सुरक्षा - निपुण परकोटा बना, पराक्रम को धनुष, ईर्यापथ को उसकी डोर और धृति को उसकी मूठ बना उसे सत्य से बाधे । तप-रूपी लोह-बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म-रूपी कवच को भेद डाले। इस प्रकार सग्राम का अन्त कर मुनि ससार से मुक्त हो जाता है। २४१
SR No.034105
Book TitleShraman Sukt
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2000
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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