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श्रमण सूक्त
(२११
दुक्करं खलु भो । निच्चं
अणगारस्स भिक्खुणो। सब्द से जाइय होइ
नत्थि किचि अजाइयं ।। गोयरग्गपविट्ठस्स
पाणी नो सुप्पसारए। सेओ अगारवासु त्ति इइ भिक्खू न चितए।।
(उत्त २ : २८, २६)
ओह ! अनगार भिक्षु की यह चर्या कितनी कठिन है कि उसे जीवन-मर सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता।
गोचरान में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थो के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है। अत गृहवास ही श्रेय है-मुनि ऐसा चिन्तन न करे।
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