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श्रमण सूक्त
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किलिन्नगाए मेहावी पंकेण व रएण वा ।
धिंसु वा परितावेण
सायं नो परिदेवए ।
वेएज्ज निज्जरापेही आरियं धम्मऽणुत्तरं ।
जाव सरीदरभेउ त्ति
जल्ल कारण धारए ||
( उत्त २ : ३६, ३७ )
मैल, रज या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के क्लिन्न ( गीला या पंकिल) हो जाने पर मेधावी मुनि सुख के लिए विलाप न करे ।
निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्य-धर्म ( श्रुत-चारित्र धर्म) को पाकर देह-विनाश पर्यन्त काया पर 'जल्ल' (स्वेद-जनित मैल) को धारण करे और तज्जनित परीषह को सहन करे ।
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