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श्रमण सूक्त
श्रमण सूक्त
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२१३)
नच्चा उप्पइयं दुक्ख
वेयणाए दुहट्टिए। अदीणो थावए पन्न
पुट्ठो तत्थहियासए।। तेगिच्छ नाभिनदेज्जा
सचिक्खत्तगवेसए। एयं खु तस्स सामण्ण ज न कुज्जा न कारवे।।
(उत्त २
३२. ३३)
रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीडित होने पर दीन न बने। व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा को स्थिर बनाए और प्राप्त दुःख को समभाव से सहन करे। ___ आत्म-गवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे। रोग हो जाने पर समाधिपूर्वक रहे। उसका श्रामण्य यही है कि वह रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न कराए।
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