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श्रमण सूक्त
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पुट्ठो य दसमसएहि समरेव महामुनी ।
नागो सगामसीसे वा सूरो अभिहणे पर ।।
न सतसे न वारेज्जा मण पि न पओसए ।
उवेहे न हणे पाणे
भुजते मससोणिय ||
(उत्त २ १०, ११)
डास और मच्छरो का उपद्रव होने पर भी महामुनि समभाव मे रहे, कोध आदि का वैसे ही दमन करे जैसे युद्ध के अग्रभाग मे रहा हुआ शूर शत्रुओ का हनन करता है।
भिक्षु उन दश-मशको से सत्रस्त न हो, उन्हें हटाए नहीं । मन मे भी उनके प्रति द्वेष न लाए। मास और रक्त खाने-पीने पर भी उनकी उपेक्षा करे, किन्तु उनका हनन न करे ।
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