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श्रमण सूक्त
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(२०१
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उसिणपरियावेणं
परिदाहेण तज्जिए। प्रिंसु वा परियावेण
साय नो परिदेवए।। उपहाहितत्ते मेहावी
सिणाण नो वि पत्थए। गाय नो परिसिंचज्जा न वीएज्जा य अप्पय।।
(उत्त २.८, ६)
गरम धूलि आदि के परिताप, स्वेद, मैल या प्यास के दाह अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीडित होने पर भी मुनि सुख के लिए विलाप न करे, आकुलव्याकुल न बने। ___ गर्मी से अभितप्त होने पर भी मेधावी मुनि स्नान की इच्छा न करे शरीर को गीला न करे। पंखे से शरीर पर हवा न ले।
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