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श्रमण सूक्त
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एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे ।
गामे वा नगरे वावि
निगमे वा रायहाणिए ।।
असमा
चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गह |
असत्तो हित्थेहि
अणिएओ परिव्वए ||
(उत्त २:१८, १६ )
सयम के लिए जीवन-निर्वाह करने वाला मुनि परिषहो को जीतकर गाव में या नगर मे, निगम मे या राजधानी मे, अकेला (राग-द्वेष रहित होकर) विचरण करे ।
मुनि एक स्थान पर आश्रम बनाकर न बैठे किन्तु विचरण करता रहे। गांव आदि के साथ ममत्व न करे, उनसे प्रतिबद्ध न हो । गृहस्थो से निर्लिप्त रहे । अनिकेत (गृह- मुक्त) रहता हुआ परिव्रजन करे |
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