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श्रमण सूक्त
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उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे
अन्नायउछपुल निप्पुलाए। कयविक्कयसन्निहिओ विरए
सव्वसगावगए य जे स भिक्खू।। अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे
उछ चरे जीविय नामिकखे। इड्डि च सक्कारण पूयण च चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ।।
(दस १० १६, १७)
जो मुनि वस्त्रादि उपाधि मे मूर्च्छित नहीं है, जो अगृद्ध है, जो अज्ञात कुलो से भिक्षा की एषणा करने वाला है, जो सयम को असार करने वाले दोषो से रहित है, जो क्रयविक्रय और सन्निधि से विरत है, जो सब प्रकार के सगो से रहित है (निर्लेप है)-वह भिक्षु है।
जो अलोलुप है, रसो में गृद्ध नहीं है, जो उञ्छचारी है (अज्ञात कुलो से थोड़ी-थोडी भिक्षा लेता है), जो असयम जीवन की आकाक्षा नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा की स्पृहा को त्यागता है, जो स्थितात्मा है, जो अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता-वह भिक्षु है।
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