________________
डा.
_ श्रमण सूक्त -
श्रमण सूक्त
-
~
। १५८
-
-
न पर वएज्जासि अय कुसीले
जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न त वएज्जा। जाणिय पत्तेय पुण्णपाव
अत्ताण न समुक्कसे जे स भिक्खूए।।।। न जाइमत्ते न य रूवमत्ते
न लाभमत्ते न सुएणमत्ते। मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ।।
(दस १० . १८, १६)
-
प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्-पृथक् होते हैं, ऐसा जानकर जो दूसरे को 'यह कुशील (दुराचारी) है' ऐसा नहीं कहता, जिससे दूसरा कुपित हो ऐसी बात नहीं कहता, जो अपनी विशेषता पर उत्कर्ष नहीं लाता-वह भिक्षु है।
जो जाति का मद नहीं करता, जो रूप का मद नहीं करता, जो लाभ का मद नहीं करता, जो सब मदो को वर्जत हुआ धर्म-ध्यान मे रत रहता है-वह भिक्षु है।
-
-
१५८