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________________ श्रमण सूक्त १५७ उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अन्नायउछपुल निप्पुलाए। कयविक्कयसन्निहिओ विरए सव्वसगावगए य जे स भिक्खू।। अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे उछ चरे जीविय नामिकखे। इड्डि च सक्कारण पूयण च चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ।। (दस १० १६, १७) जो मुनि वस्त्रादि उपाधि मे मूर्च्छित नहीं है, जो अगृद्ध है, जो अज्ञात कुलो से भिक्षा की एषणा करने वाला है, जो सयम को असार करने वाले दोषो से रहित है, जो क्रयविक्रय और सन्निधि से विरत है, जो सब प्रकार के सगो से रहित है (निर्लेप है)-वह भिक्षु है। जो अलोलुप है, रसो में गृद्ध नहीं है, जो उञ्छचारी है (अज्ञात कुलो से थोड़ी-थोडी भिक्षा लेता है), जो असयम जीवन की आकाक्षा नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा की स्पृहा को त्यागता है, जो स्थितात्मा है, जो अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता-वह भिक्षु है। - - - -१५७eी - -
SR No.034105
Book TitleShraman Sukt
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2000
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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